सोमवार, 8 मई 2017

पूगल की पद्मिनी भटियानी चितोड़ की पद्मावती महारानी

मेवाड़ की इतिहास प्रसिद्ध रानी पद्मिनी जैसलमेर के रावल पूनपालजी, जिन्हें सन् 1276 ई. से वहां से निर्वासित कर दिया गया था और जिन्हें अपना शेष जीवन मरुस्थल की वीरानी से बिताने के लिए बाध्य होना पडा, की राजकुमारी थी । इन्ही  के पढ़पौत्र राव रणकदेव ने सन् 1380 के में थोरियों से पूगल जीतकर भाटियों का एक नया स्वायत्तशासी राज्य स्थापित किया ।ढोला…मारू के इतिहास प्रसिद्ध प्रेमाख्यान की नायिका, मरवाणी भी पूगल के पाहू भाटियों की राजकुमारी थीं। समय व्यतीत होने के साथ "पूगल री पद्मिनी' दिव्य सौंदर्य का पर्यायवाची बन गई और पूगल क्षेत्र  के भाटियों की सभी बेटियों की सामान्य पदवी पूगल री पद्मिनी हो गई । आज भी यह परम्परा यथावत है ।

यह एक सुप्रसिद्ध तथ्य था कि पूगल संभाग की कन्याएं वहुत सुन्दर, व्यवहारकुशल, सुडौल,सुगठित देह और तीखे नाक नक्श वाली होती थीं । जहॉ विवाह के पश्चात् नए घर की यथा कला व्यवस्था करने में वह चतुर होती थीं, वहाँ उनमें पति का अगाध प्यार प्राप्त करने की कुशलता के साथ साथ वह पूरे परिवार को स्नेहपाश में बाँध लेती थीं और परिवारजन भी बदले में उससे भी अधिक स्नेह देते थे । पानी की कमी, साधनों का अभाव, जीवन के लिए जीवट से संघर्ष से उनमें मितव्ययता, भाग्यवादिता और निर्मीकता के गुणु आत्मसात् होते थे ।

उनके आकर्षक चेहरे-मोहरे, तीखी आकृति हलके-फुलके अनुपात में देह का मॉठल  गठन का मुख्य कारण, उजवेगिस्तान (बोखारा), ईरान, कश्मीर, अफगानिस्तान और उत्तर-पश्चिम सीमान्त प्रान्त से उनका प्राचीन भौगोलिक सम्बन्थ ब सम्पर्क होना रहा था। उन क्षेत्रों की अपेक्षाकृत ठंडी जलवायु से गोरा रंग, गुलाबी गाल व होठ होना स्वाभाविक वा, किन्तु जब पूगल क्षेत्र की उष्ण व खुश्क जलवायु से इसका शताब्दियों तक मृदु सम्मिश्रण होता रहा तो उनकी सुन्दरता से चार चाँद जुड़ गए । केवल यही नहीं कि इस क्षेत्र की कन्याएँ सुन्दर, आकर्षक व सुडौल होती थी  पूगल क्षेत्र की 'राठी' नस्ल की गाएँ भी उष्ण व खुश्क जलवायु और वातावरण के प्रभाव से अछूती नहीं रहीँ, उनका गठन, डीलडौल, रंग, चालढाल व दूध देने की क्षमता अन्य संभागों से अब भी इक्कीस है । यह सब रेतीली उपजाऊ मिट्टी, अत्यंत उष्ण व शीत जलवायु,शांत व सामान्य खाना-पीना एवं सहिष्णुता की देन थे । जब भाटियों के बेटे बेटियो के वैवाहिक सम्बंन्ध पश्चिम के सिन्ध और पंजाब प्रदेशों के बजाय पूर्वी व् दक्षिणी पडोसियों से होने लगे तो इनकी पुत्रियों के शारीरिक गुणों का जहाँ हास हुआ, वहाँ भाटी माताओं से अन्य राजपूतों की संतानों के शारीरिक गुणों में शोभनीय अभिवृद्धि हुई ।
 अगर हम प्राचीन इतिहास काव्य और साहित्य पर दृष्टि डाले तो पाएंगे कि रानी पद्मिनी के माता -पिता और उनकी जाति व् कुल को अनावश्यक,विवाद का विषय बना दिया गया है मेवाड़ की  रानी के जीवंत की यथार्थता पर सभी सहमत थे, परन्तु कोई भी राजपूत जाती उसे अपनी बेटी  मानने को उद्धत नहीं हुई, क्योंकि सभी अपनी स्वनिर्मित हींन भावना के कारण उसकी सुंदरता । व् नाम से अकारण घबराते ये । उनके अन्ताकरण में कहीं न कहीं यहः घहरि भावना बैठी हुयी थी की ऐसी पद्मिनी पूगल के सिवाय और  कहीं की कैसे हो सकती थीं । पूगल के भाटियों की विवशता यहः  थी कि कुल मिलाकर यह अनपढ़ थे । उनका अपना लिखित कोई इतिहास न था ।और परिस्थतिवश उन्होंने अपने आपको रेगिस्तान के सुरक्षात्मक फयय के एकान्त में समेट लिया  था ।कोई भी निश्चित मौखिक कथन पर विश्वास करने या ध्यान देने को ततपर नहीं होता था । उन्हें तो लिखित प्रमाण, चाहे  भले ही सरासर मिथ्या  ही क्यों न हो,  ऐसा कोनसा अभागा वँश होगा जो पद्मिनी बेटी जैसी दिव्य शोधा,गुणों की खान और बलिदान की प्रतिमूर्ति को  अपनी प्रेतक वँश परम्परा में  जोड़कर गीरवान्वित नहीं होगा । पूगल के  इतिहास से अल्प परिचित अनभिज्ञ इतिहासकारों ने पद्मिनी  को कहीं न कहीं अपनी पसन्द की खाँप या जाति की उपयोज्यता बना दीं। ओर अगर संयोगवश वह उसके वंश और खानदान की सही पहचान करने में सफल नहीं हुए तो उन्होंने उसके अस्तित्व पर पूर्णवुराम  लगाकर इतिश्री का दी ।

तवारिख जैसलमेर और जैसलमेर री ख्यात के अनुसार रावल पुनपाल जी  के तीन रानियां थी: (1) रानी पैपकंवर  पडिहारजी यह बेलवा के राणा उदयराज की पुत्री थी ,इनसे लखमसी भोजदेव, दो राजकुमार हुए । पुगलिया या पुंगली भाटी भोजदेव के वंशज हैं । (2 ) सिरोही की राणी जामकंवर देवडी, इनके चरड़ा और लूणराव, दो राजकुमार ये । इनके वंशज क्रमश:चरडा और लूँनराव भाटी है ।  इन रानी की पुत्री राजकुमारी पद्मिनी थी । (3)थर-पारकर के राणा राजपाल की पुत्री सोढी रानी । इनके पुत्र रणधीर के वंशज रणधीरोत भाटी हैं ।

पूनपालजी द्वारा सन् दृ 1276 ई. में जैसलमेर त्यागने के पश्चात् उनकी रानी जामकँवरं देवडी (चौहाँन) के सन  1285 है से राजकुमारी पद्मिनी ने जन्म लिया । इनका विवाह चितोड़ के रावल रतनसिंह के साथ हुआ था ।  रानी जामकंवर देवडी नाडोल से जालोर आये देवडो की पुत्री थी । जालोर के चौहान शासकों का विस्तृत राज्य था। जामकेंवर देवडि के पिता वर्तमान जालोर राज्य के सामंत थे ।
'जायसी ग्रंथावली', पृष्ठ 24 पंडित रामचन्द्र शुक्ल ने रानी पद्मिनी के पति का नाम रत्नसिंह (या स्तनसेन) दिया है, यहीं नाम आइन-ई-अकबरी में दिया गया है । कवि जायसी ने भी शासक का नाम रतनसी दिया है । पंडित शुक्ल के अनुसार (वर्तमान) राजपूताना या समीप के गुजरात में "सिंघल" नाम का छोटा राज्य होना चाहिए था । सिरोही राजस्थान और गुजरात की सीमा' पर है । श्रीलंका में चौहानो का कोई उपनिवेश नहीं था । श्रीलंका के निवासी कभी गोरे नहीं होते थे,इसलिए राजकुमारी पद्मिनी जैसी सुंदर कन्या वहां की संतान नहीं हो सकती । सिंघल द्वीप और वहाँ की पद्मिनु केबल गोरखपंधी साधुओं की कल्पित कथा है ।

"सोनगरा सांचोरा चौहानों का इतिहास', पृष्ठ 45, मैं हुकमसिह भाटी, गोरा और बादल जालौर के सोनगरा चौहान थे । गोरा, बादल के चाचा थे । चितौड़ आने से पहले यह गुजरात के शासक, वीसलदेव सोलंकी के प्रधान थे ।

इनकी भानजी का विवाह चितौड़ होने के बाद इनके मामा गोरा और ममेरा भाई बादल,सोलंकियों की सेवा छोडकर चितौड़ आ गए थे ।

विद्वान पंडित रामचन्द्र शुक्ल ने थोडी भूल कर दी है । रानी जामकैवर देवडी, देवड़ा चौहानों के अधीन राजस्थान से लगती गुजरात सीमा में सिंहलवाडा संभाग की थीं । रानी जामकेंवर देवडी के भाई गोरा, रानी पद्मिनी के मामा थे और बादल उनके ममेरे भाई । क्योकि गोरा और बादल रानी पद्मिनी के ननिहाल से थे, इसलिए सन् 1303 ई. के चितौड़ के जोहर से पहले उन्होंने मर्यादा सम्बन्धित मार्गदर्शन अपने ननिहाल पक्ष से भी लिया था ।

नाडौल के देवडा गुजरात के सोलंकी शासकों के प्रधान सामन्त थे और लंबे समय तक उनकी सेवा में रहे  । आसराज चौहान ने इन देवड़ा वंशजों के पास  सिंहलवाडा की जागीरी थी । इसलिए राजा देवडा हमीरसिंह की पुत्री राणी जमकंवर देवड़ी इसी सिंहलवाड़ा से थी । कवि जायसी ने सिंहलो की भूमि सिंहलवाड़ा को  कल्पना से 'सिंहल द्वीप’ की संज्ञा देकर अर्थ का अनर्थ कर दिया सम्भवतः पूर्वी भारत में दूर बैठे जायसी को उस काल में सिंहलवाड़ा के अस्तित्व का बोध तक नही था ।उन्होंने पद्मिनी और सिंहल देश का नाम सुनकर या कही पढ़कर सिंहल द्वीप की उड़ान भर ली और इसी भृर्म में मौज से पद्मावत काव्य की भूमिका बुनकर ऐतिहासिक काव्य की रचना कर डाली। कवि के भ्रमात्मक आधार ने पद्मिनी के सही अस्तित्व को सदियों तक उल्झाये रखा।


वस्तुस्थिति यह रही कि रावल पूनपालजी की रानी जामकेंवर देवही सिंहलवाडा के राजा हमीरसिंह्र देवडा की पुत्रो थी । इनके राजकुमारी पद्मिनी हुई, जिनका विवाह मेवाड़ के रावल रतनसिंह के साथ हुआ । हमीर देवड़ा पद्मिनी के नाना थे । पद्मिनी के मामा गोरा चौहान और इनका भतीजा बादल, पहले गुजरात के सोलंकी शासकों की सेवा में थे, अपनी भानजी का विवाह मेवाड़ हो जाने के बाद वह गुजरात की सेवा छोड़कर मेवाड़ के रावल की सेवा से चितौड़ आ गए । राजपूतों में यह परम्परा भी थी कि बहन या बेटी के पास पीहर और ननिहाल पक्ष से सरदार, पुरोहित व सेवक,सेविकाऐ अवश्य रहते थ । ताकि नए घर में पीहर के विछोह में बेेटी उदास नहीं रहे । निकट के यहःसम्बन्धी उसके पीहर की मान-मर्यादा से उसे अवगत कराते रहते थे और संकट की घडी से उसका साथ देते थे । -

सन् 1295 है से हुए जैसलमेर के पहले शाके तक राजकुमारी पद्मिनी सयानी हो चली थी।वह  सुन्दर कन्या तरुणाई से प्रवेेश कर रहीं थी ।शाके के बाद के दिनो से भाटी बाहुल्य प्रधान क्षेत्रो में अललाऊद्दीन खिलजी के गुप्तचरों, भेदियों की भरमार थी । पूनपालजी को चिंता थी कि कहीँ राजकुमारी के अद्भुत सौंदर्य और रूप लावण्य की सूचना सुलतान तक नहीं पहुँच जाए । और फिर,अगर सुलतान ने उनसे पद्मिनु की माँग कर ती तो उनक पास इस अबोध बालिका के बचाव का कोई साधन भी तो नहीं था, वापस जैसलमेर की शरण लेना आत्मश्ताघी पूनपालजी के प्रतिष्ठा का प्रश्न था और शाके के बाद जैसलमेर से उनका साथ देने वाला बचा ही कोन था। अगर उसकी गिद्ध निगाहों और क्रूर हवस से पद्मिनी  का कुछ बचाव सम्भव नहीं हो सका तो उनके पास स्वय के हाथों पद्मिनु का गला घोंटने या  जहर देने के सिवाय कोई विकल्प शेष नहीं था । संभावित परिदृश्य पर विचार करके पुनपालजी ने जल्दी से पद्मिनी का राजकुमार रतनसिंह के साथ विवाह किए जाने के प्रस्ताव स्वरूप परम्परागत नारियल  कुल-पुरोहित के साथ मेवाड़ के रावल समर सिम्हा के पास भेजा ।पुरोहित के साथ रावल को यहः भी  कहला भेजा कि राज्यु से निर्वासित लिए जाने के कारण वह मेवाड़ की प्रतिष्ठा के अनुरूप दहेज़ आदि की व्यवस्था करने में असमर्थ थे । मेवाड़ के शासक उनकी व्यथा समझते ये, सारे घटनाक्रम के जानकार थे इसलिए उन्होंने पद्मिनी के राजकुमार रतंन सिंह भीमसिंह) के साथ विवाह का प्रस्ताव तत्परता से स्वीकार कर लिया। अपनी अपेक्षाकृत पतली दशा तथा उस समय मेवाड़ की उच्च प्रतिष्ठा को ध्यान में रखते हुए पुंनपाल जी ने पद्मिनी का 'डोला‘ मेवाड़ भेज दिया विवाह की सारी रश्म रिवाज धार्मिक विधिपूर्वक चितोड़ मे की गयी । राजकुमारी पद्मिनी का जन्म सन 1285 ई में और विवाह सन 1300 ई में हुआ था ।
भाटी और मेवाडी एक-दूसरे से अनजान नहीं थे, प्राचीनकाल से इनके आपस में वैवाहिक सम्बन्थ होते आए थे । रावल सिद्ध देवराज का एक विवाह राव सुरुँजमल गहलोत की राजकुमारी सरुंजकैवर  रावल मुंधजी का विवाह अड़सीजी की राजकुमारी रामकंवर से रावल विजयराव लांझा जी का विवाह रावल करन समसिजियोत की राजकुमारी शिवकवर से,  रावल शालिवाहन का रावल जयसिंह की राजकुमारी राजकंवर से हुआ था । मेवाड़ के प्रथम राणा राहुल, पूगल की पाहू भाटी राजकुमारी रणकदेवी के पुत्र थे । राव रिड़मल राठौड़ का एक विवाह बीकमपुर के भाटियों के यहाँ हुआ था और उनकी बहन हँसा बाई चितौड़ के राणा लाखा को ब्याही थी, जिनके पुत्र राणा मोकल थे । इस प्रकार भाटियों और मेवाडीयों के पीडी दर-पीडी आपस में वैवाहिक आदानप्रदान होते आये थे  । पत्नी के चुनाव का मुख्य आधार उसके गुणु, सुन्दरता और खानदान होते थे, प्रमुख शासकीय जातियों के लिए वधू के पिता की समृद्धि गौण होती थी । जैसलमेर के भाटियों से मेवाड़ के वैवाहिक सम्बन्थ बाद की शताब्दियों में भी यथावत वने रहे ।

राजकुमार रतनसिंह पद्मिनी जैसी उत्कृष्ट सुन्दरी के रूप में  पाकर निहाल हो गए ।उन्होंने अपने शुभनक्षत्रों को इसके लिए बार-बार धन्यवाद दिया । किन्तु उनका अमृतचुल्य सुख अल्पावधि का रहा । जिस दूरदर्शिता से पूनपालजी ने पुग्ल के मरुदेश की अमूल्य धरोहर को अलाउद्दीन खिलजी के गुप्तचरों व भेदियों की तीखी निगाहों से बचाकर मेवाड़ व चितौड़ की अभेद्य सुरक्षा प्रदान करनी चाही थी, उनकी यह कामना पूर्ण नहीं हुई । चितौड़ में सुलतान खिलजी के शिविर के आस पास तुच्छ पुरस्कारों के लिए मंडराते हुए मेवाडी भृत्यों ने रानी पद्मिनी के अदम्य रूप लावण्य  की प्रशंसा उनके सामने का डाली । बस विनाश हो चुका । जिस नियति की आशंका पूनपालजी को चितौड़ से तीन सौ मील दूर पगल में थी ।उसी नियति के खेल ने पद्मिनी को चितौड़ में रंग दिखाया । वह अट्ठारह वर्षों की नवयौवना चितौड़ के गढ में सन् 1303 ई. में अग्नि के बलि चढ़ गई । कहाँ मरुदेश  के रेतीले शुष्क वातावरण में पली पोषी उचरखल पद्मिनी  का भाग्य उसे "खींचकर अरावली की धाटियों में ले गया, जहाँ वह रक्त…रंजित संघर्ष का कारण बनकर स्वाह हो ।गई और राजपूतों व मेवाड़ के इतिहास में पूजनीय बनकर अमर हो गई ।

भाटियों को गर्व है कि पूगल की माटी बेटी रानी पद्मिनी  भटियाणी ने जीवित रहने के लिए भाटियों और गहलोतों के आत्म सम्मान  व स्वाभिमान से समझौता किए बिना हजारों क्षत्राणियों वृद्धा व युवा, का नेतृत्व करके उन्हें आत्मदाह का मर्यादा का मार्ग बताया । कहते हैं कि जौहर  पद्मिनी ने अपने मामा गोरा  और ममेरे भाई बादल से विचार विमर्श किया  था । दोनों ने मर्यादानुसार सर्वोच्च बलिदान का मार्ग चुना एक राख बन गई, दूसरों का रक्त धरती माँ की माटी ने बीज सुरक्षित रखने के लिए सोख लिया। जितना पूगल की पद्मिनी के रूप-लावण्य, साहस व् बलिदान ने भारतीय वाड्मय को प्रभावित किया है उतना अन्य किसी ने नहीं क्रिया । क्योकिं पद्मिनी  का सौन्द्रर्यं साधारण संग्राहक की सोच-शक्ति से परे था  इसलिए तथाकथित विद्वानो ने बिना सोचे-समझे, रुके, इसकी वंश-परम्परा को कहीं भी किसी के यहाँ, टाँककर  एक गौरवमय इतिहास की इतिश्री कर दी । उनके लिए पूगल इतना समीप का साधारण पडोसी था कि वह पद्मिनी जैसी असाधारण रानी की जन्मन्यूमि हो ही नहीं सकती थी।आज्ञान, ईष्यों, जनश्रुति आदि कारणों से बाध्य होकर विद्वानों और अज्ञानियों ने पद्मिनी को ऐसी दूर जगह स्थापित करके संतोष किया ,जिसे किसी ने कभी देखा तक नहीं था, केवल उसकी स्तुति रामायण से सुनी थी ।

यहाँ यह बताना सामयिक होगा कि रानी पद्मिनी से सौ साल पहले पूगल के ही पाहू घाटियों की बेटी रानी रणकदेवी मेवाड़ के प्रथम सिसोदिया राणा, राणा राहुप, की माता थीं ।

पूगल क्षेत्र की सभी सुन्दर कुमारियों को ’पद्मिनी' नाम से सम्बोधित किया जाता था, उनका असली नाम चाहै कुछ और ही होता था । 'पद्मिनी जातिवाचक संज्ञा थी, न की
व्यक्तिबाचक ।

मंडोर के बाउक प्रतिहार शासक की भटियाणी माता को सम्मान से 'पद्मिनी' कहते थे,उनका असली नाम पद्मिनी नहीं था ।

जय क्षात्र धर्म की
सन्दर्भ ग्रन्थ-गजनी से जेसलमेर
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9 टिप्‍पणियां

  1. "जै सुख जावै जीवड़ा तो भटियाणी ल्याव" यह कहावत प्रचलित है कि यदि जीवन में सुख चाहिए तो भाटियों की बेटी से शादी कर|

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  2. बहुत ही उत्कृष्ट जानकारी प्रदान करवाई हैं हुकुम

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  3. पूगल क्षेत्र में कुछ माह में रहा हूँ और वहाँ की समृद्ध परंपरा को देखने का सौभाग्य मिला, विस्तृत जानकारी हेतू आभार सा .…. जय माताजी

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  4. mujhe kabhi kabharlagta hain ki padmini mujhe pukarti hain, aisa lagta hain unke sath mera koi pisle janm ka nata hain pata nahi kyo, jabki mein toh purab ke kamrup(assam) ka rehena bala hoon

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